किसानों के मुद्दे पर सितंबर 2020 में अकाली दल ने भाजपा से संबंध तोड़ कर बसपा से गठबंधन कर लिया। अकाली दल को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि बाजी एकाएक पलट जाएगी। पार्टी प्रमुख सुखबीर बादल को लगता था कि भाजपा, कृषि कानूनों वापस नहीं लेगी। वे किसानों की सहानुभूति लेने के प्रयासों में लगे थे। अब भाजपा के नए गेम ने बादल का खेल बिगाड़ दिया है…
सिंघु बॉर्डर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा कर दी है। इसका प्रभाव ‘हरियाणा-पंजाब’ की किसान राजनीति पर पड़ना तय है। किसान राजनीति में खिलाड़ी बदलेंगे, तो वहीं मैदान भी नया होगा। दोनों ही राज्यों में पचास फीसदी से अधिक विधानसभा सीटों पर ‘किसान’ परिवारों का प्रभाव रहता है। कई परंपराएं टूट चुकी हैं। पंजाब की सियासत में किसानों को बादल परिवार से जोड़कर देखा जाता था, तो हरियाणा की राजनीति में चौ. देवीलाल परिवार का किसानों के साथ अच्छा रसूख रहा है। अब दोनों ही राज्यों में ‘बादल और देवीलाल’ परिवार से किसानों की दूरी बन गई है। किसान आंदोलन में बादल की पार्टी यानी शिरोमणि अकाली दल को किसानों का विरोध झेलना पड़ा तो हरियाणा में ‘जजपा’ के प्रति किसानों की नाराजगी रही। अब दोनों ही राज्यों में नए सिरे से ‘किसान राजनीति’ की शुरुआत होगी। देखनी वाली बात ये है कि आगामी चुनाव में किस राजनीतिक दल को किसानों का समर्थन मिलेगा, उसके वोटों से किसकी झोली भरेगी और कौन सी पार्टी ऐसी होगी, जिसे अन्नदाता की नाराजगी उठानी पड़ सकती है।
बाजी पलटने में किसान निर्णायक
जब किसान आंदोलन शुरू हुआ तो कैप्टन अमरेंद्र सिंह, पंजाब के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने हर तरह से किसानों का सहयोग किया। भले ही किसानों ने मोबाइल टावर समेत दूसरी सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया, मगर कैप्टन की पुलिस ने धैर्य बनाए रखा। किसान जब दिल्ली की सीमाओं पर जम गए तो भी कैप्टन ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलकर तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग की थी। दूसरी तरफ, शिरोमणि अकाली दल को किसानों का विरोध झेलना पड़ रहा था। हालांकि इस विरोध को कम करने के लिए शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से संबंध खत्म कर दिया। जबकि पंजाब में दोनों पार्टियों के बीच दो दशक से भी अधिक समय से गठबंधन चलता आ रहा था।
भाजपा के नए गेम ने बादल का खेल बिगाड़ा
किसानों के मुद्दे पर सितंबर 2020 में अकाली दल ने भाजपा से संबंध तोड़ कर बसपा से गठबंधन कर लिया। अकाली दल को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि बाजी एकाएक पलट जाएगी। पार्टी प्रमुख सुखबीर बादल को लगता था कि भाजपा, कृषि कानूनों वापस नहीं लेगी। वे किसानों की सहानुभूति लेने के प्रयासों में लगे थे। अब भाजपा के नए गेम ने बादल का खेल बिगाड़ दिया है। दूसरी तरफ कैप्टन अमरेंद्र सिंह, जिन्हें आज भी किसानों का समर्थन हासिल है, सबकी नजरें उन पर हैं। गत वर्ष कैप्टन ने 20 अक्तूबर को केंद्र के तीन नए कृषि विधेयकों को निष्प्रभावी करने के लिए पंजाब विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था। कांग्रेस छोड़ने के बाद अब उन्होंने ‘पंजाब लोक कांग्रेस’ नाम से नई पार्टी बना ली है। वे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिल चुके हैं। चुनाव की दहलीज पर कृषि कानून वापस हो गए हैं। ऐसे में संभव है कि कैप्टन के सहारे भाजपा, नाराज किसानों को अपनी तरफ लाने का प्रयास कर सकती है। कांग्रेस पार्टी ने चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाकर दलित मतदाताओं को साधने का प्रयास किया है। मौजूदा हालात में पंजाब का किसान कैप्टन को ही सबसे ज्यादा तव्वजो देता है। आगामी चुनाव में अगर कैप्टन और भाजपा मिलकर लड़ते हैं तो उन्हें किसानों के वोट मिल सकते हैं।
किसान आंदोलन की बागडोर जाटों के पास
हरियाणा में 90 विधानसभा सीटों का गणित देखें, तो आधे से ज्यादा सीटों पर किसानों का प्रभाव रहा है। बड़ी जोत अब खत्म हो रही हैं। खेती में जाट समुदाय का अहम रोल है। यूं भी कह सकते हैं कि प्रदेश में खेती की ज्यादातर जमीन जाटों के पास है। हरियाणा की राजनीति के जानकार, सतीश त्यागी बताते हैं कि प्रदेश में किसान आंदोलन की बागडोर जाटों ने ही संभाली थी। सिरसा, रोहतक, कैथल, भिवानी, हिसार जींद, सोनीपत, झज्जर, फतेहाबाद व महेंद्रगढ़ आदि जिलों में चुनाव के दौरान किसानों की भूमिका में निर्णायक रहती है। साल 2004 से 2014 तक भूपेंद्र सिंह हुड्डा प्रदेश के सीएम रहे हैं। इस दौरान प्रदेश के अधिकांश किसान जो पहले देवीलाल परिवार तक सीमित रहते थे, वे हुड्डा के साथ कांग्रेस पार्टी की तरफ आ गए। किसान आंदोलन में हुड्डा का कहीं नाम नहीं आया। वे शांत रहे, जबकि उनके बेटे और राज्य सभा सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा, राहुल गांधी व प्रियंका गांधी के साथ चलते रहे। देवीलाल परिवार अब दो दलों में विभाजित हैं। इनेलो को अभय चौटाला देखते हैं, जबकि जजपा को भतीजे दुष्यंत चौटाला संभाल रहे हैं। वे हरियाणा सरकार में डिप्टी सीएम हैं। भाजपा के साथ उन्हें भी कई अवसरों पर किसानों का विरोध झेलना पड़ा।
किसानों की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश
आने वाले समय में प्रदेश का किसान, किस तरफ जाएगा, इस बाबत एकाएक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। जिस तरह से भाजपा ने एक ही झटके में कृषि कानून वापस ले लिए, संभव है कि किसान, अब भाजपा के प्रति ‘सॉफ्ट’ हो जाएं। मौजूदा स्थितियों में किसान राजनीति की धुरी पर इनेलो, जजपा, कांग्रेस व भाजपा में से कौन आगे निकलेगा, कुछ समय बाद ही ये पता चल पाएगा।